By Chaitali Deepesh Sinha
ऋषि दुर्वासा से मिले थे उसे पांच वरदान,
थी उसकी ६ वीर संतान|
गलती की, बिना विवाह के पुत्र माँगकर,
अति शोक पाया उस मासूम को नदी में बहाकर|
किया कुंती ने महाराज पांडु से प्यार,
माद्री संग उनके विवाह पर वह रोई झार-झार|
अपना कर उसे अपनी छोटी बहन,
वन में पांडु-माद्री संग किये अनेक कष्ट सहन|
जब न हो सकी कोई संतान,
याद किये खुद को मिले पाँच वरदान|
उनका ज्येष्ठ पुत्र था युधिष्ठिर,
जो था शांत और धीर|
बलशाली भीम था उनका पुत्र दूसरा,
वीर अर्जुन था उनका लाल तीसरा|
माद्री को दिलवाये सहदेव और नकुल,
भेजा पाँचों को कौरवों के संग गुरु द्रोणा के गुरुकुल|
अकेले संभाली उन्होंने पाँच संतानें,
ढाल बानी उनकी, पांडवों को अधर्म से बचाने|
दिखाया अपने पुत्रों को सदा ही धर्म का रास्ता,
पर भूल से यज्ञसेनी द्रौपदी को पाँचो में बाँटा|
उन पर सदा रखा अपना हाथ,
चाहा की पाँचों दे एक-दूजे का साथ|
द्रौपदी का चीरहरण देख, दिया उसने श्राप,
विध्वंस होगा सबका, जिसने किया यह पाप|
महाभारत में लिया पाँडवों का पक्ष,
पर न भूल पायी सूर्यदेव से मिला अंश|
कर्ण को कौन्तेय होने का राज़ बताया,
बदले में अर्जुन की सुरक्षा का वचन पाया|
कर्ण की मौत पर बहाए अपने अश्रु,
पाँडवों को पता चला, भाई ही था शत्रु|
खुश हुई वह पाँडवों की जीत पर,
किया पाँचों संतानों ने ऊँचा गर्व से उनका सर|
"प्रीत" मानती है कुंती को एक फरिश्ता,
क्योंकि उनकी सीख और आशीर्वाद से पाँडवों ने युद्ध जीता|
By Chaitali Deepesh Sinha
बहुत ही बढ़िया कविता।
Well said. 😍