top of page

ब्राण्डेड जूते

By Priyanka Gupta


"मेरे जूते कहीं दिख नहीं रहे।" मंदिर से बाहर आते ही मेरे मित्र सुबोध ने कहा। 

"अरे, इतनी भीड़ है। ढंग से देखो, इधर -उधर हो गए होंगे।" मैंने समझदारी दिखाते हुए कहा। भीड़ में जनता के क़दमों से जूतों को भी पैर लग जाते हैं और जूते पता नहीं, कहाँ से कहाँ पहुँच जाते हैं। सुबोध के ब्राण्डेड जूते और थे। मैंने आने से पहले उसे सलाह भी दी थी कि, "भाई, हम मध्यम वर्गीय लोग ऐसे महँगे ब्रांड अफोर्ड नहीं कर सकते। अपने ये जूते पहनकर मत चल। "

मस्तमौला सुबोध ने यह कहते हुए बात टाल दी कि, " जूते खो गए तो, अपने पुराने वाले लोकल जूते तो हैं ही। ऐसे सोचता रहा तो कभी यह जूते पहन ही नहीं पाऊँगा। "

"भाई, जूते नहीं मिल रहे हैं। मुझे भी अब किसी और के ही जूते-चप्पल पहनकर जाना होगा।" सुबोध ने मुस्कुराहट के साथ कहा और अपनी नाप के जूते -चप्पल ढूँढना लगा। 

"चल, अब भगवान की पूजा के बाद, थोड़ी पेट -पूजा भी हो जाए।" अपने नाप की एक हवाई -चप्पल पहनकर सुबोध ने कहा। 

"तेरे जूते खो गए और तुझे ज़रा भी फ़िक्र नहीं हो रही।" मैंने अचरज से कहा। 

"फ़िक्र करने से मेरे जूते वापस नहीं मिलेंगे। चिन्ता और दुःख से मेरा दिमाग ही खराब होगा।" सुबोध ने शांति से कहा। 

सुबोध की बातों ने मुझे 'ओह माय गॉड ' मूवी के एक संवाद की और विशेषतया भगवदगीता ग्रन्थ की याद दिला दी थी, जब एक दृश्य में अक्षय कुमार कहते हैं कि, "संसार की हर समस्या का समाधान 'भगवदगीता ' में है । इस ग्रन्थ के बारे में बहुत कुछ सुनते हुए ही बड़े हुए थे । अमूमन हर भारतीय व्यक्ति, जो कि हिन्दू धर्म का अनुयायी है ;उसके घर में यह ग्रन्थ उपलब्ध होता है । वैसे निजी तौर पर मेरा मानना है कि, हिन्दू एक धर्म मात्र न होकर संस्कृति है, जीवन जीने का तरीका है । 

भगवदगीता ग्रन्थ पर विभिन्न विद्वानों ने शोध किया है । बाल गंगाधर तिलक का लिखा गीता -रहस्य, इस ग्रन्थ पर तिलक का शोध है । गीता की विभिन्न संकल्पनाएँ यथा लोकसंग्रह, स्थिती प्रज्ञ, निष्काम कर्म, स्वधर्म आदि पढ़ने में बहुत ही बेहतरीन महसूस होती है, लेकिन व्यवहारिक जीवन में उनका पालन करना मुझे हमेशा ही बड़ा दुष्कर समझ आता था । बिना फल की आशा किये बिना, भला कोई कर्म कैसे कर सकता है और भला कर्म करेगा ही क्यों ?

सुःख -दुःख,हर स्थिति में हम इंसान भला एक जैसे कैसे रह सकते हैं ? सुःख -दुःख हम इंसानों को प्रभावित करेंगे ही, हम में भावनाएँ होती हैं ;हम कोई भावविहीन प्रस्तर नहीं हैं । भावनाएँ हैं, इसीलिए सुःख -दुःख हमें महसूस होते हैं और हम स्थिति -परिस्थिति के अनुसार अपनी प्रतिक्रिया देते हैं ।

लेकिन किताबों में ऐसा पढ़ रखा था कि इस अप्रतिम ग्रन्थ ने कई महान पुरुषों जैसे महात्मा गाँधी, अरविंदो घोष, स्वामी विवेकानन्द आदि के जीवन पर गहरा प्रभाव डाला था । महात्मा गाँधी की निःस्वार्थ सेवा की संकल्पना गीता से ही प्रभावित थी । आज मुझे सुबोध भी किसी स्थितप्रज्ञ से कम नहीं दिख रहा था। 

हम दोनों दोस्त खाने के लिए कोई सस्ता और सुन्दर ढाबा ढूँढने लगे। सुबोध अभी भी, अपनी मस्ती में मस्त था। वह खाने के बारे में बात कर रहा था। 

"मेरा तो राजमा -चावल खाने का मन है। राजमा-चावल के साथ,एक छाछ भी ले ही लूँगा।" सुबोध ने कहा। 

"यह भी सही इंसान है।" मेरे अंदर से एक आवाज़ आयी। 

"वैसे इंसान को ऐसा ही होना चाहिए। हमेशा हर पल, हर क्षण वर्तमान में ही जीना चाहिए। वर्तमान में जीना ही स्थितप्रज्ञ बनने के मार्ग पर अग्रसर होना है।" मेरे अंदर से आयी दूसरी आवाज़ ने, पहली आवाज़ को निरुत्तर कर दिया था। 

"अरे, वह रहे मेरे जूते।" सुबोध की हर्षमिश्रित आवाज़ से, मैं अपने विचारों के सागर से बाहर आया। मेरी नज़रें सुबोध पर स्थिर हो गयी थी। 

मुझे अपनी तरफ देखता हुआ पाकर, सुबोध ने अपनी अंगुली से एक भाईसाहब की और इशारा किया। मेरी नज़रें सुबोध से हटकर, अब उन भाईसाहब पर थी। उन भाईसाहब के पैरों में हुबहू सुबोध के जूतों, जैसे जूते थे। 



मैं कुछ कहता -सुनता या समझता, उससे पहले ही सुबोध उन भाईसाहब के नज़दीक चला गया था और अब मैं भी उसके पीछे -पीछे चला गया। 

"भैया, आपने जो चरण -पादुकायें धारण कर रखी हैं, वह इस नाचीज़ की निजी संपत्ति है। कृप्या मेरी संपत्ति मुझे लौटाने का कष्ट करें।" सुबोध ने कहा। 

सुबोध की कही बात, उन भाईसाहब को समझ नहीं आ रही थी। यह उनके सपाट चेहरे से, जाहिर था। 

"अरे भैया, यह जूते मेरे हैं।" सुबोध ने कहा। 

वह भाईसाहब कौनसे कम थे, उन्होंने कहा, "कौन हो भई ?यह जूते मेरे हैं। "

"सुबोध, इन भाईसाहब के जूते, तेरे जूतों जैसे हैं।" मैंने भी सुबोध को समझाते हुए कहा। 

"मेरे एक जूते का सोल टूट गया था और उसे मैंने क्विक फिक्स से चिपकाया था। अब आप अपने जूते दिखाइए।" सुबोध के आत्मविश्वास से भरे शब्दों का भाईसाहब के पास कोई जवाब नहीं था। 

उन्होंने जूते खोले और जैसे ही जूतों को उल्टा किया, हम तीनों ही निःशब्द थे। सुबोध के बताये अनुसार, एक जूते का सोल टूटकर चिपका हुआ था। 

भाईसाहब, जूते वहीं छोड़कर, वहाँ से नौ दो ग्यारह हो गए थे। वह भाईसाहब ऐसे गायब हो गए थे, जैसे गधे के सिर से सींग। 

"देख, अगर मैं जूते खोने से दुःखी होता, चिंता करता तो शायद मुझे मेरे जूते कभी वापस नहीं मिलते।" सुबोध ने अपने ब्राण्डेड जूते पहनते हुए कहा। 

"हाँ, मेरे स्थितप्रज्ञ।" मेरे मुँह से सुबोध के लिए निकल ही गया था। 

"क्या मतलब ?",सुबोध ने मुझे अचरज भरी नज़रों से देखते हुए कहा। 

"भगवदगीता पढ़ेगा तो समझ जाएगा।" मैंने सुबोध से कहा। 

"चल, अभी तो खाना खाते हैं।" मेरी बात सुनी -अनसुनी करके मेरा मस्तमौला दोस्त एक ढाबे की तरफ चल दिया था। 

"इसे भगवदगीता पढ़ने की क्या जरूरत है, इसने तो भगवदगीता को जीवन में उतार लिए है।" मैं भी सुबोध के पीछे चल पड़ा था। 


 




लेखक -परिचय 

अभियांत्रिकी की शिक्षा प्राप्त कर भारतीय सिविल सेवा जैसी कठिनतम परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद हिंदी साहित्य के क्षेत्र में अपने छोटे -छोटे क़दमों से प्रवेश करने वाली, प्रियंका का जन्म 7अगस्त को राजस्थान के भाण्डारेज (दौसा )ग्राम में हुआ था। प्रियंका का बाल कहानी संग्रह 'गोलगप्पे 'वर्ष २०२३ में प्रकाशित हुआ है ।  


स्वघोषणा 

' ब्राण्डेड जूते’ बाल कहानी स्वरचित ,मौलिक और अप्रकाशित है ।

 

By Priyanka Gupta



Comments

Rated 0 out of 5 stars.
No ratings yet

Add a rating
SIGN UP AND STAY UPDATED!

Thanks for submitting!

  • Grey Twitter Icon
  • Grey LinkedIn Icon
  • Grey Facebook Icon

© 2024 by Hashtag Kalakar

bottom of page