फिर उठूंगा
- Hashtag Kalakar
- Jan 13
- 1 min read
Updated: Jul 17
By Naveen Kumar
वो नज़र खो गई, न जाने किस मज़ार में
वो सहर खो गई, न जाने किस प्रकाश में
छंद राग खो गए, पीड़ा की आग में
गीत साज़ खो गए, आंसुओं की बरसात में
शाम गुज़र गई, शोक के सुबार में
रात आ गई, एक नए खुमार में
रोम-रोम जल उठा कि सांस–सांस उबल उठा
हर तरफ धुआं उठा कुछ कहर ऐसा उठा कि जिंदगी बदल गई
हाथ में कफ़न लिए, मरकद हैं ढूंढ़ते
दिख जाएं वो जमीं, जिसको हम ढूंढ़ते
सो जाऊं चैन से और बुझ जाए हर दिये
एक नए दौर में एक नए तौर में
सांस बन कर फिर उठूं
कि पुष्प बन कर फिर खिलूँ
आग बनकर फिर जलूं
कि ओश बनकर फिर गिरु
महके ज़हान जिससे
वो नहीं पहचान बनूं, वो नई किताब लिखूं
By Naveen Kumar

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