By Seema CK
प्रेम का मतलब ये नहीं होता कि उसके साथ कोई रिश्ता या संबंध बन जाए । प्रेम का तो मतलब है कि अपने प्रियतम को अपने रोम-रोम में बसाकर ख़ुद को मिटा देना । ख़ुद के अस्तित्व को संपूर्णतः मिटा देना ही प्रेम है । अपने अस्तित्व को सिर्फ़ भुला देना नहीं बल्कि मिटा ही देना क्योंकि भूले हुए की तो कभी-ना-कभी या किसी-ना-किसी रूप में वापिस आने की संभावना होती है । ख़ुद के अस्तित्व को दोबारा से पाने की हर एक संभावना को ही मिटा देना ही प्रेम है । अवसर मिलने पर भी ख़ुद के अस्तित्व को वापिस पाने की इच्छा का ही जाग्रत ना होना ही प्रेम है । अपनी आत्मा के सूक्ष्म-से-सूक्ष्म अंश को भी अपने प्रियतम को समर्पित कर देना ही प्रेम है ।
यदि समय के प्रकोप से, नियति के प्रहार से और शारीरिक दूरी से भी अपने प्रीतम के प्रति आपके समर्पण, शिद्दत, आस्था, निष्ठा, श्रद्धा-भाव में अंश-मात्र भी कमी ना आये, वास्तव में वही प्रेम है और ये प्रेम सिर्फ़ प्रेम नहीं रह जाता बल्कि भक्ति बन जाता है, इबादत बन जाता है और प्रीतम ही परमात्मा हो जाता है और परमात्मा से शारीरिक सामीप्य का कोई महत्त्व नहीं रह जाता क्योंकि परमात्मा तो हमारी आत्मा के कण-कण में बसा है, रग-रग में है । वो हर क्षण हमारे साथ ही है तो उसके शारीरिक सामीप्य की आवश्यकता ही क्या है । जो प्रीतम में परमात्मा को ना देख सके, उस भाव को प्रेम नहीं कहा जा सकता, उस भाव का कुछ और ही नाम होता होगा लेकिन वो प्रेम तो बिल्कुल भी नहीं होता क्योंकि प्रेम में तो प्रीतम ही परमात्मा हो जाता है । प्रेम और भक्ति अलग-अलग नहीं है । प्रेम ही भक्ति है और प्रेम ही परमात्मा है और जिसका अपने परमात्मा के प्रति संपूर्ण श्रद्धा- भाव होता है वो अपने परमात्मा के द्वारा दिए गए हर दुःख, दर्द, तकलीफ़, कष्ट को बिना किसी शिकायत के सहन करता जाता है कि हे मेरे ईश्वर ! हे मेरे परमात्मा ! हे मेरे भगवान ! तू चाहे कितने भी दुःख, दर्द, तकलीफ़, कष्ट देता रहे लेकिन मेरे अंतस में, मेरे अंतर्मन में, मेरी अंतरात्मा में तेरे प्रति समर्पण-भाव और श्रद्धा-भाव में अंश-मात्र भी कमी नहीं आएगी । वास्तव में प्रेम “समर्पण की पराकाष्ठा” है !!
हर जन्म में मेरी आत्मा पर सिर्फ़ तेरा अधिकार रहेगा,
तेरी-मेरी आत्मा का परमांश सदैव एक रहेगा !!
By Seema CK
Pl
Pleasant
Priceless
Diamond
First class of rating