By Kamlesh Sanjida
मैं नन्हीं सी कोमल कली,
माँ की कोख़ में थी पली
माँ के सपने संजोती रही,
अपना एहसास जताती रही ।
जाने क्या भूल मुझसे हुई,
मैं अजन्मी कली मुरझा गई
ख़ता भी मेरी कुछ न हुई,
जो माँ-बॉप में नफ़रत हुई ।
मेरे प्रति न जाने कैसी घृणा पली,
माँ को अपना एहसास दिलाती रही
अपने होने का विश्वास दिलाती रही,
और मैं भी हरदम ख़ुश होती रही ।
पेट पर हाँथ माँ फिराती रही,
अपना दुलार लुटाती रही
प्यार माँ मुझसे करती रही,
मुझे छुवन से ख़ुश करती रही ।
बाहर की दुनियाँ बताती रही,
कैसी क्या है सब समझाती रही
अपने विचारों को बताती रही,
अपनी छाप मुझपे छोड़ती रही ।
मैं उसकी तरह ही बनती रही,
माँ सी शक्ल मेरी होती रही
उसके खून से ही बनती रही,
और कोख़ में ही पलती रही ।
दिन पे दिन बस बिताती रही,
बाहर का सपना संजोती रही
माँ - बॉप को देखने को मैं,
बस उतावली सी होती रही ।
धीरे-धीरे मैं तो यूं ही बढ़ती रही,
महीनों का एहसास दिलाती रही
दिन पर दिन में तो काटती रही,
माँ के संग ख़ुद को जिलाती रही ।
माँ के खाने पर ही पलती रही,
बंद आँखों से दुनियाँ देखती रही
माँ की आँखें मुझको दिखाती रही,
और माँ के पैरों से घूमती रही ।
किसी की सलाह मेरे बाप को मिली,
भ्रूण को टेस्ट कराने की इच्छा पली
इक्छा ख़ूब प्रबल होती गई,
एक दिन वो घड़ी भी आ गई ।
डॉक्टर ने पहले ही मेरी कहानी रची,
कली होने की ख़बर बाप को मिली
माँ मेरे लिए हर दम लड़ती रही,
पर समाज के विष की ही चली ।
डॉक्टर नोटों का सपना देखते रहे,
और अपने अहम को मिटाते रहे
गाजर मूली की तरह ही ,
डॉक्टर मुझे काटते रहे ।
अपने को दरिंदों से बचाती रही,
यहाँ से वहां पेट में फिरती रही
मैं टुकड़ों-टुकड़ों में कटती रही,
और डस्टबिन में फिकती रही ।
मैं तो ख़ूब फड़फड़ाती गई,
ख़ूब चीखती -चिल्लाती गई
दर्द को अपने दिखाती गई,
मेरी आवाज दबके रह गई ।
मैं पूरी ही लहूलुहान होती गई,
खून में सनी लाश होती गई
कितने टुकड़ों में कटती गई,
माँ की कोख़ से जुदा होती गई ।
अंत में सिर को आरी से काटा गया,
और उसको टुकड़ों में बाँटा गया
एक-एक टुकड़ा फिर उठाया गया,
यहाँ से वहाँ बस फिकवाया गया ।
कहर मुझ पे यहाँ भी नहीं रुका,
कुछ टुकड़ों को पैरों से रौंदा गया
कुत्तों और चीलों के लिए छोड़ा गया,
और मुझे नोच-नोचके खाया गया ।
बदलने पर भी न दिल बदला,
समाज की दुहाई देता गया
मुझको ही कुर्बान करता गया,
सदियों से सितम यूं ही चलता गया ।
गुहार किस किस से लगाती गई,
लोगों के दिलों को पिंघलाती गई
अपनी जान बचाती फिरती गई,
फिर भी जान यूं ही गवाती गई ।
By Kamlesh Sanjida
भ्रूण हत्या पर मार्मिक कविता