By Geetanjali Mehra
जाने कितनी सदियों से धरती करती आई सचेत
मानव ने टाल दिये उसके सभी संकेतI
प्रकृति ने सूझने बूझने की कशमता
मुझको ही दे डाली
ईसी अहंकार में उसने पृथ्वी सिर्फ अपना नाम लिखवा ली I
इतने वर्षों में माँ बन कर धरती ने पुचकारा
बालक की हर नादानी को अन्देखI कर सब सम्भा ला I
बार-बार मौका दिया बदलने का
गिर-गिर कर फिर से संभलने का I
बच्चों को सही दिशा मां ही दिखाएगी
गिरने लगे अगर तो बचाने दौड़ी चली आएगी I
सज़ा दे कर सीखIना माँ का ही फ़र्ज़ है
हर संतान को चुकाना होगा जन्म का ये कर्ज़ है I
धरती को बर्बाद करके हो गए सब भ्रष्ट
इसका परिणIम केवल करेगा मानवता को नष्ट I
बढ़ता धुआं सभी प्रकार से बढ़I रहा तIपमान
अंगणीत इच्छाएं, वस्तुएं और बढ़ता हुआ सामान I
सागर में ये लाएगा ऐसी सुनामी,
पानी के इस वेग को नहीं रोक पाएगा प्राणी I
अभी भी समय है के इन संकेत को समझ जाएं हम
इस से पहले की हो जाये सब कुछ ख़तम
सब कुछ ख़तम
सब कुछ ख़तम II
By Geetanjali Mehra
Amazing poem 👏
Beautiful poem
Every single line is beautifully written
Nice Poem
Beautiful article voicing the dangers of over exploitation of mother earth.