By Yogesh Kumar Pradhan
तिमिर से मुझको भय नहीं, मशाल मेरी चांदनी,
रवि का मैं प्रकाश हूं, मैं जुगनुओं की रागिनी,
मैं कृष्ण के अचूक सुदर्शन का हाहाकार हूं,
प्रलय ध्वनि मैं पार्थ के गांडीव की टंकार हूं,
मैं केसरी के डमरू का विनाश रूपी ताल हूं,
मैं ब्रह्मा, विश्व का कृता, स्वयं उसी का काल हूं,
प्रलय विलय है आंतरिक हृदय के अंग में कहीं,
अनंत का भी अंत है जगत के संग में कहीं,
निश्चित विराम है सभी का एक दिन तो क्यों रुकूं,
ना कायरों का नेता हूं जो यम के सामने झुकूं,
क्षुधा सुधा की ना मुझे, है प्यास एक ज्ञान की,
अग्रजों के मान की, अवनी के परित्राण की,
अड़े खड़े हो शत्रु चाहे कोटि मेरे सामने,
भिरुत्व का चलन नहीं है मेरे कुल के नाम में,
मैं शत्रुओं के जीर्ण–शीर्ण रक्त से मलीन हूं,
आदि का सृजक भी मैं, मैं अंत में विलीन हूं,
भुजाएं खोले हो गगन, भले नज़र से क्षीण हूं,
मनुज हूं ,अपने क्षमताओं की सीमाओं से हीन हूं।।
By Yogesh Kumar Pradhan
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