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चाँद देखा क्या?
By Snigdha Bhardwaj
सुनो आज चाँद देखा क्या?
क्या देखी तुम्हें लुभाने को, उसकी बादलों संग लुका छुप्पी की अठखेलियाँ?
या देखे उसके अक्स में एक दूजे को तलाशते दीवाने?
या फिर उसकी आभा पर कविता लिखते कवि देखे क्या?
क्या देखा उसे ख़ुद अपनी चाँदनी में जगमगाते हुए?
और सैंकड़ों को जलाते हुए?
या देखा उसे इतराते हुए, कि इतनी दूर होकर भी तुम्हें हर रोज़ देखता है?
या उसकी रोशनी में नहाए पंछियों के जोड़े देखे क्या?
क्या महसूस की उसकी चाँदनी में मेरे स्पर्श की नरमी,
या उसकी शीतलता में मेरे प्यार का अम्बार देखा क्या?
चलो, अब कल हम इस चाँद को जलाएंगे,
भले ही हम दूर सही, पर इसके ज़रिये, एक-दूजे को गले लगाएंगे।
तो ठीक 9 बजे,
तुम कल रात छत पर आ जाना,
और सुनना मुझे, ये पूछते हुए कि,
"सुनो आज चाँद देखा क्या?"
"मैं भी चाँद के आईने में, रुप तुम्हारा देखूँगा,
और ठंडी आह भरते हुए कहूँगा,
कि आज बहुत दिनों बाद, मैंने भी अपना चाँद देखा है"!
By Snigdha Bhardwaj