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कृष्ण हैं

By Anshuman Thakur




पार्थ ने जब गांडीव को त्याग रखा भूमिपर,

तो भूमि भर कष्ट - दर्द त्राहि-त्राहि करने लगी। 

त्राहि भूमि की कर श्रवण त्राहि का निदान करने, 

कृष्ण ने पार्थ की ओर अपनी दृष्टि रखी।


पार्थ के पथ की प्रथा का उल्लंघन कर, 

पार्थ ने जब पथ से पद पदम् पीछे लिए। 

पार्थ को लाने वापस पथ की परिनिधी में, 

पार्थ के सारथी ने अपने हिंस दिव्य दर्शन दिये ।


आसक्ति से घिरा था वह एवं दबी थी उसकी शक्तियाँ, 

दबी थी संग-संग उसकी वीरता का भाव भी । 

उस भाव को पुणः उजागर करने वीर पार्थ मे, 

वीरों में वीर ने अपनी बातें रखी।


पार्थ ने ज्ञानवान जगत के सार से, पूछ लिया की प्रभू आपका क्या सार है? 

वैजंती का हार धारण करने वाले सूत्रधार, 

जिनकी मंद मुस्कान उज्वल संसार का आधार है।


कृष्ण कहते हैं :-


"मै भेद हूँ और कर्म भी, 

मैं अजुर्न हूँ मैं कर्ण भी । 

भक्तों का समर्पण भी, 

हूँ पितरों का मैं तर्पण भी, 

आदित्य को किया अर्पण भी, 

नीर के समान दर्पण भी ।"


"मैं बाँसुरी के सुरों में, प्रकृति का अभिनंदन करता हूँ, 

मैं शंख की ध्वनि में, काल का आलिंगन करता हूँ।


कामधेनु बन चर रहा हूँ, सिंह रूप में काल धर रहा हूँ। 

अक्षर में 'अकार' हूँ, शब्दों में 'ओंकार' हूँ।"


"अष्ट वसु, एकादश रुद्र, 

मैं विष्णु, आदिती का द्वादश पुत्र । 

मुझमे ही हैं सभी विश्वेदेव, 

मैं शेषनाग में वासुदेव । 

मैं हूँ गरुड़ मै ही मगर, 

मेरे आधीन सभी चर-अचर ।


पितरों - सि‌द्धों का समुदाय भी, राक्षसों के लिए मैं न्याय भी 

देवर्षि नारद, महर्षि भृगु, 

अति पवित्र मैं पीपल का तरु। "


"था वो मैं ही त्रेता में, 

जिसने शस्त्र उठाए थे।

दण्डकाराण्य की भूमि से मैने ही असुर मिटाए थे। 

वशिष्ठ का मैं शिष्य था,

मर्यादा पुरुषोत्तम् मनुष्य था। 

मैं ही रावण हंतक था, 

था कुंभ-कर्ण का काल भी।

करुणा निधान भी मैं ही था, 

मैं था जानकी वल्लभ राम भी।"


भागीरथी हूँ, गंगा हूँ, 

परमब्रम्‌ह अगोचर अजन्मा हूँ।।

देवेंद्र हूँ, साम वेद हूँ, 

वि‌द्या मे ब्रम्‌हभेद हूँ। 

भावों का रक्षक मौन हूँ, 

जानो पार्थ मैं कौन हूँ ? 

ऋतु रूप में वसंत हूँ?

समास रूप में द्वंद्व हूँ।"


" मैं शांताकार, मैं पद्‌मनाभ, 

मै तो स्वयं सुरेश्वर हूँ ! 

न मैं हानि, न मैं लाभ, 

मैं तो अनंत विश्वेश्वर हूँ! 

मेरे हैं अनेक गुण, 

स्त्रियों में मेरे रूप सुन-

वाक, क्षमा, स्मृति हूँ मैं,

मेधा, श्री एवं धृति हूँ मैं।"


मेरे अनेक रूप हैं एवं हैं अनेक आकार, 

जन्म - मृत्यु पाने वाले मुझमे ही होते एकाकार। 

ये जो तेरे सखा-संबंधी, 

आज यु‌द्ध करने आए हैं, 

पापियों के पाप कर्म में, 

सहभागी बनने आए हैं। 

आज मृत्यु प्राप्त करेंगे

तो फिर से कल जन्म पायेंगे, अविनाशी आत्मा रहेगी, 

नश्वर शरीर मिट जायेंगे।"


"यहाँ इस कुरुक्षेत्र में, 

न शस्त्र हैं न शस्त्रधारी ही, 

न अश्व हैं न गज ही हैं, 

न सैनिक हैं न अधिकारी ही।


यहाँ तो केवल ब्रम्ह हैं, 

जो एक-दूसरे पर टूटेंगे । 

धनुष से बाण छूटेंगे, 

फिर प्राण देह से रुठेंगे ।"

"इनकी चिंता फिर भी न कर, 

ये रण में मारे जायेंगे। 

कर्म निर्वाह करने को अग्रसर, 

ये सभी वीरगति पायेंगे। 

मेरे ही अंश मात्र है, 

मुझमे ही लौटकर आयेंगे , 

अपने कर्मों के अनुसार 

ये दूसरा जन्म भी पायेंगे।"


खड़ा हुआ धनंजय किर, 

दुश्मनों को देखने, 

गाँडिव की टंकार से, 

शत्रुओं के हृदय भेदने ।

रक्त निर्झरी बहेगी, 

मही की प्यास बुझाने को, 

धरा सदा लाला रहेगी, 

भविष्य को बताने को,

जिवित हैं या मृत हैं, 

जो भी दृश्य या अदृश्य है, 

न तुम-तुम हो न मैं-मैं हूँ, 

केवल कृष्ण थे और कृष्ण हैं।


By Anshuman Thakur



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