By Shubhangi Tripathi
हुई कश्ती में सवार सोच के मैं,
देखूं समुंदर पार दुनिया को भी मैं ।
साफ आसमान और नीचे उठती लहरें,
रोमांच से भरा सफर,होगा कितना यह ।
डोलते हुए नाव,पहुँची बीच समुंदर मे,
डर सा थोड़ा अब पनपने लगा मन मे मेरे।
उस पार दुनिया के सपने छोड़ अब
इस सफर को ही समझने लगी मैं ।
किस ओर मोङू अपनी कश्ती मै,
दिखे न अब कोई छोर मुझे ।
अब बह रही थी कश्ती मेरी,
बस समुंदर के इशारे पर ।
सहसा आसमान मे गरजी बिजली,
उठी लंबी लहरों की होड़ हो जैसे ।
एक बिजली सी कौंधी मेरे मन-मस्तिष्क मे भी,
यूँ ही नही खोने दूंगी,अपनी कश्ती को मै।
नही चलेगी कश्ती मेरी अब,
लहरों के मचलते इशारों पर।
ठाना मैने ,अब पहुंचाना,
कश्ती को है किनारे पर ।
देख कर ध्रुव तारे को,
दी कश्ती को नई दिशा ।
रोमांच से भरा सफर मेरा,
हो गया था शुरु पुनः ।
मन मे था अटल विश्वास,
किनारा बस है यहीं पास।
By Shubhangi Tripathi
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