By Adyasha Pradhan
ये आग्नेयगिरी के चिरते शिखर; अंतरमन में असंख्य अतृप्त लावा से तू समाई है। ये जो बेगरज़ रंग से तू मुस्कराती है, और लावा को यूँ तरल कण रूप से बहाती है... कभी पूछा है..?
कभी पूछा है स्वयं सार से, कैसे नश्वर अनियंत्रित भूराल को समेटा है ? जरा पूछ के देख...
कहीं तेरी छाती अब लय लगन भाव से अक्षम तो नहीं, की तेरा हृदय वही बाग का नवीन उत्तमांश है कि या जहर घोट कर बन चुका है बेजान पत्थर कोई।
पूछ ही रही है तो, तू पूछ एक बार तेरे अवगत नयन से भी कि तू नेत्र से नेता कब हुआ बना ?
तू ना था ऐसे प्रदर्शनक निपुण अभिनेता,
क्यों नही भाया तुझे जग के ये बेदाग रंग;
जिसको तू एक काल तरसती थी पाने को।
हाँ, की तू पूछ तेरे से नस से कि कितने टांके वो तुझसे छुपाये हैं? खुद कैसे संचल कर लेते हैं, तेरे क्रोध विष समाहित रक्त को।
उठ, बखान कर तेरे ही तो रख हैं ,
कैसे इतना सह लेते हैं...?
पूछ हर कण को तेरे कि तू कैसे श्वास ले पायी हर क्षण है...
कि कैसे ना टूटा बाँध धीर किसीका
की आखिर बार पूछ,
की तू ठीक है ना... ?
जब मिल जायें तूझे प्रत्येक का उत्तर या समूचा का कोई नया बहाना;
जरा आना मुझसे आँखे मिलाना।
By Adyasha Pradhan
Loved your poem . Keep it up. Keep writing such beautiful poems 👍👍😊😊
Keep it up dear✨👍💐💐