By Kamlesh Sanjida
मेरे देश में कुछ तो ऐसे,
साँप भी पलते हैं
रहते हैं आस्तीनों में,
और फिर भी डसते हैं ।
ढूंढ़ो तो आसानी से,
कहाँ मिल ही पाते हैं
कहीं न कहीं हममें ही,
दुबके से रहते हैं ।
कितने ही तो ख़ामियाजे,
अब तक भुगते हैं
इन गद्दारों की वजह से,
देश भक्त ही मरते हैं ।
इतनीं आसानी से भी ,
कहाँ पहचाने जाते हैं
देश भक्तों के मुखोटे भी,
उनके ही सजते हैं ।
यही तो कारण है कि,
सब ढूँढ़ते ही रह जाते हैं
अपना काम तो वो ,
धीरे से ही कर जाते हैं ।
चक्रव्यूह भी तो कुछ ऐसे,
उनके ही चलते हैं
सबूतों के नाम पर तो,
देश भक्तों के मिलते हैं ।
कैसे कैसे पैंतरे ,
वो हर रोज बदलते हैं
गिरगिट के चेहरे से,
बस बदलते मिलते हैं ।
काँटों मे भी तो,
दिखने के फूल तो खिलते हैं
ज़हरीली खुशबु में,
हम सब ही पलते हैं ।
कुछ लोगों की फ़िदरत में,
ऐसे साँप भी पलते हैं
अपनी ही ख्वाहिश के,
उनमे मनसूबे पलते हैं ।
कैसे कैसे बिलों में,
वो छुपे से रहते हैं
अपने संग न जाने,
कितनों को सुलाते हैं ।
निकल निकल कर कैसे,
देश भक्तों को डसते हैं
देश भक्तों के सहरे,
ऐसे साँपों को सजते हैं ।
By Kamlesh Sanjida
आस्तीन के साँप अपने देश को समर्पित कविता