top of page

अक्सर हम घटनाओं को वैसा नहीं देखते, जैसी कि वे होती हैं बल्कि हम उन्हें वैसा ही देखते हैं जैसा कि हम देखना चाहते हैं।

Updated: Jul 16

By Ayush Sharma


 हम अक्सर यह मानते हैं कि हम जो देखते हैं, वही सत्य है। यह मान्यता हमारी सोच में गहराई तक समाई हुई है, और हम सोचते हैं कि हमारी दृष्टि वस्तुनिष्ठ है। लेकिन क्या यह सच है? क्या हम वास्तव में घटनाओं को वैसे ही देखते हैं जैसे वे घटित होती हैं, या हमारी मानसिक स्थिति और पूर्वाग्रह हमारी दृष्टि को विकृत कर देते हैं? यह धारणा, कि हमारी दृष्टि वास्तविकता को बिना किसी विकृति के दिखाती है, एक भ्रांति है। समाज और संस्कृति में कई ऐसी मान्यताएँ हैं, जो हमें यह विश्वास दिलाती हैं कि हम जो देख रहे हैं, वह वास्तविक है। लेकिन क्या हम वास्तव में उस वास्तविकता को देख रहे हैं? क्या हमारी दृष्टि घटनाओं के वास्तविक स्वरूप को ग्रहण करने में सक्षम है, या हम उसे अपने पूर्वाग्रह और भावनाओं के चश्मे से देखते हैं?


      "जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि।” व “जो दिखता है वह होता नहीं और जो होता है वह दिखता नहीं।” जैसी प्रसिद्ध उक्तियां यह दर्शाती हैं कि हमारा दृष्टिकोण ही हमारे अनुभवों और समझ को आकार देता है। हम जो कुछ भी देखते हैं, उसे अपनी मानसिकता, विचार और पूर्वाग्रहों के संदर्भ में देखते हैं, और यही हमारे जीवन की सच्चाई बन जाती है। मनुष्य के दृष्टिकोण में बदलाव लाकर हम अपनी वास्तविकता को बदल सकते हैं। जब हम किसी घटना या स्थिति को देखते हैं, तो यह जरूरी नहीं कि हम जो देख रहे हों, वही वास्तविकता हो। बल्कि, हमारी मानसिक स्थिति और भावनाएँ हमारी दृष्टि को इस प्रकार रंग देती हैं कि हम वही देखते हैं जो हम देखना चाहते हैं। यह मानसिकता केवल व्यक्तिगत जीवन में ही नहीं, बल्कि समाज, राजनीति और ऐतिहासिक घटनाओं के विश्लेषण में भी प्रभाव डालती है। उदाहरण के लिए, अगर कोई व्यक्ति समाज में होने वाली किसी अन्यायपूर्ण घटना को अपने पूर्वाग्रह के आधार पर देखता है, तो वह उस घटना को वैसा नहीं देखेगा जैसी वह सच में है, बल्कि वह उस पर अपने पूर्व विचारों की परछाई डालेगा। यही कारण है कि वास्तविकता कभी-कभी हमारे द्वारा देखी जाने वाली छाया से भिन्न होती है।


        अब प्रश्न यह उठता है कि अक्सर हम घटनाओं को उनके वास्तविक रूप में क्यों नहीं देख पाते ? वास्तविकता में इसके कई कारण हैं जैसे - हमारे मस्तिष्क की संरचना और कार्य शैली, हमारे पूर्वाग्रह व धारणायें, हमारी भावनाएं, हमारी संज्ञानात्मक असंगति (Cognitive Dissonance), सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव, हमारे अनुभवों का प्रभाव, हमारी इच्छाएं व अपेक्षाएं, हमारी मनोवैज्ञानिक सुरक्षा की प्रवृत्ति, हमारे परिप्रेक्ष्य का प्रभाव, भ्रम और सच्चाई का द्वंद्व आदि। इन सभी का विश्लेषण करना आवश्यक है ताकि यह समझा जा सके कि किस प्रकार ये सभी घटनाओं को देखने के हमारे दृष्टिकोण को प्रभावित करते हैं। इसे समझने के बाद ही हम इसका मार्ग खोल सकेंगे कि घटनाओं को उनके वास्तविक रूप में कैसे देखा जाए।


         अब विचार का पहला मुद्दा यह है कि हमारे व्यक्तिगत अनुभव व सामाजिक - सांस्कृतिक परिवेश घटनाओं के देखने के हमारे दृष्टिकोण को कैसे प्रभावित करते हैं। दरअसल हमारे व्यक्तिगत अनुभव हमारे मस्तिष्क पर गहरी छाप छोड़ते हैं और घटनाओं को समझने की प्रक्रिया में एक निर्णायक भूमिका निभाते हैं क्योंकि हम अपने अनुभवों के आधार पर ही घटनाओं का मूल्यांकन करते हैं। उदाहरण के लिए, अगर किसी व्यक्ति ने जीवन में कई बार धोखा खाया है, तो वह दूसरों के व्यवहार को संदेह की दृष्टि से देख सकता है। इसी प्रकार हमारे अतीत के अनुभव, जैसे सफलता, असफलता, प्रेम, घृणा आदि हमारी सोच को प्रभावित करते हैं। इन स्मृतियों के कारण हम नई घटनाओं को उसी दृष्टिकोण से देखते हैं जो हमारे पिछले अनुभवों से मेल खाती हैं। अनुभव हमें सिखाते हैं कि किसी परिस्थिति में कैसे प्रतिक्रिया दी जाए। जैसे, अगर किसी ने कठिन परिस्थितियों में सफलता प्राप्त की है, तो वह भविष्य में भी चुनौतियों को अवसर के रूप में देखेगा। अनुभव हमारी दृष्टि के रंगमंच को बदल देते हैं। 


       इसके अलावा सामाजिक परिवेश व्यक्ति के सोचने और घटनाओं को समझने के तरीके को गहराई से प्रभावित करता है। जिस समाज में व्यक्ति रहता है, उस समाज की सोच, संस्कृति और परंपराएँ व्यक्ति के दृष्टिकोण को आकार देती हैं। उदाहरण के लिए, यदि किसी अल्पसंख्यक समाज या समुदाय में बहुसंख्यकों को अपने शोषक के रूप में देखा जाता है (भले ही ऐसा वास्तविकता में न हो) तो इस बात की अधिक संभावना है कि उस समाज के लोग भी इसी दृष्टिकोण को स्वीकार करेंगे हालांकि इसका विपरीत भी उतना ही सच है। इसी प्रकार समाज में प्रचलित रूढ़ियां भी लोगों के दृष्टिकोण का निर्धारण करती हैं । उदाहरण के लिए, कुछ समय पहले तक सती प्रथा जैसी रूढ़ी को भी सामाजिक स्वीकृति प्राप्त होने के कारण अधिकांश लोग इसके समर्थन में थे और यहां तक कि वे इस प्रथा का विरोध करने वाले कुछ लोगों के भी विरोध में थे। यही नहीं परिवार से प्राप्त मूल्य, नैतिकता, और शिक्षा भी व्यक्ति के दृष्टिकोण को सीधे प्रभावित करते हैं। परिवार के विचार व्यक्ति की सोच का आधार बनते हैं। इसका सीधा उदाहरण हमें महात्मा गांधी और छत्रपति शिवाजी के जीवन में देखने को मिलता है। इसके अलावा कभी-कभी किसी घटना को समझने में व्यक्तिगत अनुभव और सामाजिक परिवेश एक-दूसरे के साथ मिलकर काम करते हैं और यह मिश्रण ही तय करता है कि वह किसी घटना को कैसे समझेगा। हालाँकि किसी घटना को समझने में व्यक्तिगत अनुभव और सामाजिक परिवेश एक-दूसरे के पूरक होते हैं। अनुभव व्यक्ति की मानसिकता को परिपक्व बनाते हैं, जबकि सामाजिक परिवेश उसे एक व्यापक संदर्भ देता है। इसलिए, घटनाओं को सही तरीके से समझने के लिए इन दोनों कारकों को ध्यान में रखना आवश्यक है।



         यही नहीं हमारे कई प्रकार के पूर्वाग्रह (Biases) व धारणाएं (Beliefs) भी हमारे दृष्टिकोण व निर्णयों को प्रभावित करती हैं। ये धारणाएँ हमारे अनुभवों, सामाजिक परिवेश, और शिक्षा से निर्मित होती हैं। इन्हीं के आधार पर हम घटनाओं की व्याख्या करते हैं। उदाहरण के लिए, अगर किसी व्यक्ति की किसी समुदाय विशेष के प्रति नकारात्मक धारणा है, तो वह उनकी किसी भी क्रिया को संदेह की दृष्टि से देखेगा। इसके अलावा हमारा मस्तिष्क हर दिन लाखों सूचनाओं को प्रोसेस करता है लेकिन यह केवल उन सूचनाओं को चुनता है जो हमारी रुचियों, अनुभवों और विश्वासों से मेल खाती हैं। इसे ‘संज्ञानात्मक पूर्वाग्रह’ (cognitive bias) कहते हैं। उदाहरण के लिए, यदि हम मानते हैं कि दुनिया स्वार्थी है, तो हमारा मस्तिष्क ऐसी घटनाओं को प्राथमिकता देगा जो इस धारणा को पुष्ट करती हैं। संज्ञानात्मक पूर्वाग्रह वह मानसिक त्रुटि है जो हमारे मस्तिष्क द्वारा जानकारी को संसाधित (process) करते समय स्वचालित रूप से होती है। यह तर्कहीन सोच और निर्णय लेने की प्रक्रिया में गलतियों का कारण बनता है। इसमें किसी समूह या व्यक्ति के प्रति विशेष झुकाव नहीं होता, बल्कि यह मस्तिष्क के शॉर्टकट (mental shortcuts) से उत्पन्न होता है। इसी का एक प्रकार है - ‘संदर्भ पूर्वाग्रह’ (anchoring bias)। इसमें व्यक्ति निर्णय लेते समय किसी प्रारंभिक जानकारी (अंक, तथ्य या मूल्य) पर अत्यधिक निर्भर हो जाता है, भले ही वह जानकारी प्रासंगिक हो या नहीं। यह प्रारंभिक जानकारी (एंकर) व्यक्ति के निर्णय को प्रभावित करती है और वह बाद की जानकारी को उसी के सापेक्ष देखता है। उदाहरण के लिए, यदि एक दुकानदार किसी वस्तु की कीमत 10,000 रुपये बताता है, और बाद में इसे 7,000 रुपये में देने की बात करता है, तो ग्राहक को यह सस्ता लग सकता है, भले ही वास्तविक कीमत केवल 5,000 रुपये होनी चाहिए। ऐसा ही एक संज्ञानात्मक पूर्वाग्रह (Cognitive Bias) है - ‘उपलब्धता पूर्वाग्रह’ (availability bias)। जिसमें व्यक्ति निर्णय लेते समय हाल की, आसानी से याद आने वाली, ध्यान खींचने वाली घटनाओं या जानकारी पर ज्यादा निर्भर करता है। व्यक्ति इस उपलब्ध जानकारी को अतिमहत्वपूर्ण मान लेता है, भले ही यह पूरी तस्वीर न दिखा रही हो। उदाहरण के लिए, यदि आपने हाल ही में किसी विमान दुर्घटना की खबर सुनी है, तो आपको हवाई यात्रा असुरक्षित लगने लगेगी, भले ही विमान दुर्घटनाएँ बहुत दुर्लभ होती हैं। इसी प्रकार जब मीडिया किसी अपराध की खबर को बार-बार दिखाती है, तो लोगों को यह लगता है कि वह अपराध बहुत ज्यादा हो रहा है, जबकि आँकड़े कुछ और कह सकते हैं। इसके अलावा संज्ञानात्मक पूर्वाग्रह का एक और प्रकार है - ‘पुष्टिकरण पूर्वाग्रह’ (confirmation bias)। यह हमारे मस्तिष्क की वह प्रवृत्ति है जिसमें हम जानकारी को तर्कपूर्ण तरीके से नहीं, बल्कि अपनी व्यक्तिगत धारणाओं, अनुभवों, और भावनाओं के आधार पर संसाधित (process) करते हैं व केवल अपनी धारणाओं का समर्थन करने वाली जानकारी को ही प्राथमिकता देते हैं। उदाहरण के लिए, केवल अपने राजनीतिक विचारों का समर्थन करने वाली ख़बरें पढ़ना। हालांकि यह स्वचालित (automatic) और अनजाने में (unconscious) होता है। ऐसे ही कुछ अन्य पूर्वाग्रह भी होते हैं जिनसे जाने-अनजाने में हमारे निर्णय व विचार प्रभावित होते हैं और कई जगह इसके कारण तर्कपूर्ण विश्लेषण भी कमजोर होता है। 


       इसके अलावा ‘संज्ञानात्मक असंगति’ (cognitive dissonance) व भावनाएं भी हमारे निर्णयों व विचारों को गहराई से प्रभावित करती है। संज्ञानात्मक असंगति (Cognitive Dissonance) वह मानसिक स्थिति है, जो तब उत्पन्न होती है जब हमारे विचार, विश्वास, और व्यवहार आपस में विरोधाभासी होते हैं, यानी जब हमें किसी स्थिति या निर्णय के बीच विरोधाभास महसूस होता है। यह असुविधा और मानसिक तनाव का कारण बनती है, और लोग इसे कम करने के लिए विभिन्न तरीकों से अपनी सोच और व्यवहार को बदलने की कोशिश करते हैं। उदाहरण के लिए, अगर कोई व्यक्ति पर्यावरण संरक्षण का समर्थक है, लेकिन प्लास्टिक का उपयोग करता है, तो वह इसे सही ठहराने के लिए कह सकता है कि "मेरे पास इसका कोई विकल्प नहीं है”। मानकर चलिए इसी प्रकार किसी व्यक्ति ने महंगे जूते खरीदे, जबकि उसे सस्ती वैरायटी चाहिए थी, तो वह इसे सही ठहराने के लिए कह सकता है कि "यह जूते बहुत टिकाऊ हैं और मुझे इन्हें लंबे समय तक पहनने का फायदा होगा।” 


      इसके अलावा हमारी भावनाएँ हमारी दृष्टि पर गहरा प्रभाव डालती हैं। जब हम खुश होते हैं, तो हमें घटनाएँ सकारात्मक लगती हैं, और जब हम दुखी होते हैं, तो वही घटनाएँ नकारात्मक प्रतीत होती हैं। इसका एक बेहतर उदाहरण कवि सूरदास जी के पदों में देखा जा सकता है, जब गोपियां श्री कृष्ण के विरह में व्याकुल हैं तब उन्हें सुख के प्रतीक भी दुख के प्रतीक ही नजर आते हैं :-


                             बिनु गोपाल बैरिनि भई कुंजैं।

                             तब ये लता लगति अति सीतल, अब भई विषम ज्वाल की पुंजैं॥

                             बृथा बहति जमुना, खग बोलत, बृथा कमल फूलैं, अलि गुंजैं।

                             पवन पानि घनसार संजीवनि दधिसुत किरन भानु भईं भुंजैं॥

                             ए, ऊधो कहियो माधव सों बिरह कदन करि मारत लुंजैं।

सूरदास प्रभु को मन जोवत अँखियाँ भईं बरन ज्यों गुंजैं॥


         इसके अलावा सर्वाधिक शक्तिशाली तरीके से जो हमारे घटनाओं को देखने के दृष्टिकोण को प्रभावित करती हैं वे हैं हमारी इच्छाएं और अपेक्षाएं। हालांकि आध्यात्मिक व दार्शनिक दृष्टिकोण में इसे ‘माया का आवरण’ कहा जाता है।  हम अक्सर वही देखना चाहते हैं जो हमारी इच्छाओं और अपेक्षाओं को पूरा करता है। यह ‘चयनात्मक धारणा’ (Selective Perception) का उदाहरण है। उदाहरण के लिए, अगर हम मानते हैं कि हम सही हैं, तो हम उन तथ्यों को नजरअंदाज करेंगे जो हमारी गलतियों की ओर इशारा करते हैं। इच्छाएं और अपेक्षाएं हमारे मानसिक ढांचे को आकार देती हैं और यह तय करती हैं कि हम किसी स्थिति को किस दृष्टिकोण से देखते हैं और हम कैसे प्रतिक्रिया करते हैं। जब हमारी इच्छाएँ और अपेक्षाएँ किसी विशेष दिशा में होती हैं, तो हम अपनी मानसिक स्थिति को उसी आधार पर स्थापित करते हैं। उदाहरण के लिए, अगर किसी व्यक्ति की यह इच्छा है कि वह बहुत जल्दी सफल हो, तो वह किसी भी अवसर को अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने का कदम मानने लगता है, भले ही वह अवसर उसके लिए जोखिमपूर्ण हो। उसकी इच्छा उसे सकारात्मक परिणाम देखने की दिशा में प्रेरित करती है, और उस समय वह जोखिम को भी अनदेखा कर सकता है। इसके अलावा इच्छाएँ और अपेक्षाएँ हमारे ध्यान को सीमित करती हैं, जिससे हम केवल उन्हीं चीजों पर ध्यान केंद्रित करते हैं जो हमारी इच्छाओं और अपेक्षाओं के अनुसार होती हैं। इसके अलावा यह हमारे निर्णयों को भी प्रभावित करती हैं, खासकर जब हमारे पास कई विकल्प होते हैं। उदाहरण के लिए, अगर किसी व्यक्ति की इच्छा है कि वह एक विशेष ब्रांड का मोबाइल खरीदे, तो वह उस ब्रांड के बाहर के किसी भी अन्य विकल्प पर विचार कम करेगा, भले ही अन्य विकल्प तकनीकी रूप से बेहतर या किफायती हो। ध्यातव्य है कि हमारी इच्छाएं व अपेक्षाएं ही हमारी भावनाओं को नियंत्रित करती हैं । इच्छाएं एवं अपेक्षाएं पूरी हुईं तो खुशी व प्रेम और अगर पूरी नहीं हुई तो दुःख, निराशा और गुस्सा। यहां तक कि हमारी इच्छाएँ और अपेक्षाएँ यह भी निर्धारित करती हैं कि हम दीर्घकालिक लाभ की तुलना में तात्कालिक संतुष्टि को प्राथमिकता देते हैं या नहीं। यदि हमारी इच्छाएँ तात्कालिक संतुष्टि की ओर झुकी होती हैं, तो हम लंबे समय तक लाभ देने वाले विकल्पों को नकार सकते हैं। उदाहरण के लिए, अगर किसी व्यक्ति को शॉर्ट टर्म फायदे की आदत है, तो वह जल्दी पैसे कमाने के लिए उच्च जोखिम वाले निवेशों का चयन कर सकता है, जबकि उसे दीर्घकालिक और सुरक्षित निवेश के विकल्प को प्राथमिकता देनी चाहिए।


             बात केवल यहीं तक सीमित नहीं है इसके अलावा हम कभी अपनी मनोवैज्ञानिक सुरक्षा की प्रवृत्ति के कारण, कभी अपने परिप्रेक्ष्य के कारण तो कभी अपने भ्रम व सच्चाई के द्वंद्व के कारण घटनाओं को अपने अनुसार ही देखते हैं । सच्चाई कई बार इतनी कठोर होती है कि उसे स्वीकार करना मुश्किल हो जाता है इसलिए, हम उसे इस प्रकार से देखते हैं जो हमें मानसिक और भावनात्मक सुरक्षा प्रदान करे। इसके अलावा हमारी दृष्टि हमारे परिप्रेक्ष्य (Perspective) से जुड़ी होती है। एक ही घटना को दो लोग अलग-अलग देख सकते हैं, क्योंकि उनके जीवन के अनुभव, शिक्षा, और मानसिकता अलग-अलग होती है। कई बार घटनाओं की जटिलता और कई स्तरों के कारण, उनकी सच्चाई को समझना कठिन हो जाता है। इस कारण हम अपनी सुविधा के अनुसार आसान मार्ग चुनते हैं और सरल या आंशिक सत्य को चुन लेते हैं।


            बाहरी कारकों में सोशल मीडिया और समाचार प्लेटफॉर्म्स को लिया जा सकता है जो अपनी सामग्री को इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं कि हम वही चीज़ें देखते हैं जो हमारे पहले से बने हुए विश्वासों और रुचियों के अनुरूप होती हैं। इस प्रकार वे हमें अधिकांशतः हमारे ‘पुष्टिकरण पूर्वाग्रहों’ (confirmation bias) के अनुसार ही सामग्री दिखाते हैं। सोशल मीडिया पर सूचना का प्रसार जितना आसान होता है उसकी प्रामाणिकता की जांच करना उतना ही कठिन होता है, जिसके कारण कई बार झूठी खबरें (fake news) और विकृत जानकारी भी बहुत तेज़ी से फैलती है। इससे समाज में भ्रम और गलतफहमियां उत्पन्न हो सकती हैं, जो वास्तविकता की हमारी समझ को ग़लत दिशा में मोड़ देती हैं। भीड़ हत्या (mob lynching)  इसका सर्वविदित उदाहरण है। इसी प्रकार एक वायरल पोस्ट या खबर जो गलत तथ्यों पर आधारित होती है, वह लाखों लोगों तक पहुँच सकती है, और वे इसे सत्य मानकर अपनी सोच को प्रभावित करते हैं। कभी-कभी पैड़ (paid) न्यूज़ व पक्षपाती मीड़िया का मामला भी देखने को मिलता है जिसे ‘द साबरमाती रिपोर्ट’ फिल्म में बेहतर तरीके से प्रतिबिंबित किया गया है। इसके अलावा कई बार हम खबरों को जोड़कर नहीं देख पाते जिससे हम अपने दृष्टिकोण को व्यापक नहीं कर पाते और वह नहीं समझ पाते जो समझना चाहिए। इस समस्या को ‘ध्रुव’ फिल्म में एक स्थान पर उजागर किया गया है जहां नायक कहता है कि “हर छोटा अपराध व हर छोटी घटना किसी बड़े संगठित अपराध व सोची-समझी साजिश का हिस्सा है।” कई बार सोशल मीडिया पर परफेक्ट जीवन, आदर्श शरीर, या अन्य भौतिक या सामाजिक मानक को दिखाया जाता है, जो लोगों को यह महसूस कराते हैं कि वास्तविकता में वही सब होना चाहिए। यह एक ऐसा वातावरण निर्मित कर सकता है जहां हम दूसरों के जीवन की तुलना में अपने जीवन को नाकाम मान सकते हैं। उदाहरण के लिए, इंस्टाग्राम, फेसबुक जैसे प्लेटफॉर्म्स पर लोग केवल अपनी खुशियों और सफलताओं को साझा करते हैं, जिससे कभी-कभी यह आभास होता है कि दूसरों का जीवन बहुत परफेक्ट है, जबकि असलियत में ऐसा नहीं होता। इसके अलावा जब हम किसी विचार या घटना को बार-बार देखते हैं, तो वह हमारे लिए सामान्य लगने लगती है, चाहे वह सही हो या गलत। इसे ‘सामान्यीकरण’(normalization) कहा जाता है। कई बार समाचार प्लेटफॉर्म्स और सोशल मीडिया अक्सर जटिल घटनाओं या मुद्दों को साधारण शब्दों में प्रस्तुत करते हैं, जिससे घटनाएँ अधिक सरल और स्पष्ट प्रतीत होती हैं। इससे कभी-कभी भ्रम वश ‘रुढिबद्धता’ (stereotyping) का निर्माण होता है । कई बार सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स पर हम अधिकांशत: उन लोगों से घिरे होते हैं जो हमारी सोच और विचारधारा से मेल खाते हैं। इस तरह के ‘इको चेंबर’ में हमें केवल वही विचार और जानकारी मिलती है जो हमारी मान्यताओं को पुष्ट करती हैं, और हम विरोधी विचारों को नहीं देख पाते। इसके अलावा सोशल मीडिया और समाचार प्लेटफ़ॉर्म्स पर जानकारी का प्रवाह इतना तेज़ होता है कि हम पूरी जानकारी नहीं प्राप्त कर पाते। बहुत बार, हम केवल सुर्खियाँ या छोटे टुकड़ों में जानकारी प्राप्त करते हैं, जिससे हमारी वास्तविकता की समझ अधूरी हो सकती है।


        इसके अलावा अंततः सकारात्मक और नकारात्मक प्रवृत्तियाँ भी निश्चित रूप से घटनाओं को देखने के हमारे दृष्टिकोण को प्रभावित करती हैं। सकारात्मक प्रवृत्तियों वाले लोग घटनाओं को इस तरह से देखते हैं कि क्या कुछ सकारात्मक पहलू है जिसे वे समझ सकते हैं या उससे कुछ सीख सकते हैं। वे समस्याओं को अवसरों के रूप में मानते हैं और बदलावों का स्वागत करते हैं। नकारात्मक प्रवृत्तियों वाले लोग घटनाओं को नकारात्मक ढंग से देखते हैं, और इन घटनाओं में हमेशा संभावित खतरों और विफलताओं को अधिक महत्व देते हैं। उनका दृष्टिकोण अक्सर भ्रमित और नकारात्मक होता है, जो उनकी मानसिक शांति और निर्णय लेने की प्रक्रिया को प्रभावित करता है। इस प्रकार उपर्युक्त विश्लेषण से पता चलता है कि क्यों हम घटनाओं के वास्तविक स्वरूप को नहीं देख पाते व किस प्रकार हमारा दृष्टिकोण नकारात्मक रूप से प्रभावित होता रहता है ।


          अब प्रश्न यह उठता है कि घटनाओं को उनके वास्तविक स्वरूप में कैसे देखा जा सकता है व वास्तविक रूप में देखने के लिए क्या उपाय किए जा सकते हैं? इसके लिए कई तरीकों को अपनाया जा सकता है और बेहतर होगा कि इन सभी तरीकों को एक साथ लागू किया जाए। सबसे पहला तरीका है - पूर्वाग्रहों से मुक्त दृष्टिकोण । इसके लिए खुद से यह सवाल करें कि "क्या मैं इस घटना को पूरी तरह से नकारात्मक या सकारात्मक ढंग से देख रहा हूँ? क्या यह मेरी व्यक्तिगत राय पर आधारित है? कोई पूर्व घटना, अनुभव या विचार तो इसे प्रभावित नहीं कर रहा?” जब हम अपनी पूर्वधारणाओं को पहचानते हैं, तो हम ज्यादा वस्तुनिष्ठ तरीके से घटना को देख सकते हैं। दूसरा तरीका यह है कि हम वस्तुनिष्ठता और तर्क का पालन करें। इसके लिए हम तथ्यों और आंकड़ों पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं, जो वास्तविकता से मेल खाते हों। सूचना के विभिन्न स्रोतों से डेटा इकट्ठा करने से हम घटनाओं का अधिक सटीक विश्लेषण कर सकते हैं। इसके अलावा घटनाओं को केवल एक दृष्टिकोण से देखने के बजाय, विभिन्न पक्षों और दृष्टिकोणों को समझने की कोशिश करें। इससे हम अधिक संतुलित और सटीक दृष्टिकोण प्राप्त कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, अगर हम एक राजनीतिक घटना पर विचार कर रहे हैं, तो यह महत्वपूर्ण है कि हम विभिन्न राजनीतिक दलों और विशेषज्ञों के दृष्टिकोणों को सुनें और समझें। चूँकि भावनाओं का प्रभाव भी हमारी सोच को विकृत कर सकता है, इसलिए हमें घटनाओं को देखने से पहले अपनी भावनाओं को नियंत्रित करने की कोशिश करनी चाहिए। इससे हम अधिक सटीक रूप से सोच सकते हैं। उदाहरण के लिए, अगर हमें किसी घटना पर गुस्सा या दुःख महसूस हो रहा है, तो हमें पहले अपनी भावनात्मक स्थिति को पहचानने और शांति से सोचने का प्रयास करना चाहिए। घटनाओं के वास्तविक स्वरूप को जानने के लिए हमें प्राथमिक स्रोतों से जानकारी प्राप्त करनी चाहिए। समाचार, लेख, और अध्ययन भी कभी-कभी दूसरे पक्षों से प्रभावित हो सकते हैं, इसलिए हमें साक्षात्कार, प्रमाणिक दस्तावेज़, और व्यक्तिगत अनुभवों को प्राथमिकता देनी चाहिए। घटनाओं से जुड़े लोगों से सीधे संवाद करना, गवाहों के बयान सुनना, और घटना के संदर्भ में उपलब्ध दस्तावेज़ों को अध्ययन करना हमारी समझ को और अधिक सटीक बना सकता है। कभी-कभी हम यह स्वीकार करने में असमर्थ होते हैं कि हमारी समझ या दृष्टिकोण गलत हो सकता है। इसलिए, घटनाओं को सही रूप से समझने के लिए हमें अपने दृष्टिकोण को खुले दिल से स्वीकारने और समर्पण की मानसिकता अपनानी चाहिए। इसके लिए जब हम किसी घटना के बारे में सोचते हैं, तो हमें खुद से यह सवाल करना चाहिए, "क्या मेरे दृष्टिकोण में कोई गलती हो सकती है?" यदि हमें लगता है कि हमारा दृष्टिकोण सही नहीं है, तो हमें उसे सुधारने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए। इसके अलावा आत्म-चिंतन एक शक्तिशाली उपकरण हो सकता है, जो हमें अपने सोचने के तरीके पर विचार करने और उसमें सुधार करने का अवसर देता है। जब हम किसी घटना को अपने दृष्टिकोण से देखते हैं, तो यह महत्वपूर्ण होता है कि हम अपनी सोच पर विचार करें। घटना को समझने के बाद, खुद से यह सवाल करें, "क्या मैंने इस घटना को उसी रूप में देखा जैसा कि वह है? या फिर मैंने अपनी इच्छाओं और पूर्वाग्रहों के आधार पर इसे देखा?" आत्म-चिंतन से हम अपनी सोच का सही दिशा में मार्गदर्शन कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त घटनाओं को समझने के लिए हमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। यह तथ्यात्मक, विश्लेषणात्मक और तर्कसंगत होता है, जो वास्तविकता को सही रूप में प्रस्तुत करता है। इसके लिए जब कोई घटना घटती है, तो उस पर आधारित वैज्ञानिक और तर्कपूर्ण विश्लेषण को प्राथमिकता दें, बजाय इसके कि हम सिर्फ अपने व्यक्तिगत विश्वासों या भावनाओं को आधार बनाकर किसी घटना का मूल्यांकन करें। इस प्रकार हम अपनी मानसिकता और दृष्टिकोण को समझकर, विभिन्न स्रोतों से जानकारी प्राप्त करके, और पूर्वाग्रहों को नकारकर घटनाओं का वास्तविक रूप देख सकते हैं। यदि हम अपनी सोच को खुले और वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण से समझें, तो हम घटनाओं को उनके वास्तविक रूप में देख पाएंगे और सही निर्णय लेने में सक्षम होंगे।


             अगर हम अपनी धारणाओं और पूर्वाग्रहों के अनुसार ही घटनाओं को देखना जारी रखते हैं, तो इससे न केवल व्यक्तिगत स्तर पर गलत निर्णय होंगे, बल्कि सामूहिक निर्णय भी त्रुटिपूर्ण होंगे। यह प्रवृत्ति समाज में असमानता, पक्षपात और गलतफहमियों को बढ़ावा दे सकती है। उदाहरण के लिए, इतिहास में अनेक युद्ध और सामाजिक संघर्ष इसी कारण हुए हैं कि विभिन्न पक्षों ने घटनाओं को अपने-अपने दृष्टिकोण से देखा और उनकी वास्तविकता को अनदेखा कर दिया। व्यक्तिगत जीवन में भी ऐसी प्रवृत्ति रिश्तों को तनावपूर्ण बना सकती है। अतः, यदि हम सतर्क नहीं हुए, तो यह आदत हमारी मानसिक शांति और सामाजिक सौहार्द्र को गहरे स्तर पर प्रभावित कर सकती है। वहीं यदि हम घटनाओं को वैसा देखने की आदत डालें, जैसा कि वे वास्तव में होती हैं, तो हमारी जीवन दृष्टि अधिक संतुलित और वास्तविक हो सकती है। इसके लिए हमें अपने पूर्वाग्रहों, धारणाओं और मानसिक सीमाओं को चुनौती देने की आवश्यकता है। सतर्क आत्मनिरीक्षण, साक्ष्यों पर आधारित विश्लेषण, और विवेकपूर्ण दृष्टिकोण इस दिशा में सहायक हो सकते हैं। शिक्षा प्रणाली और सामाजिक संवाद में वस्तुनिष्ठता को प्रोत्साहित करना, मीडियाबद्ध जानकारी का समालोचनात्मक मूल्यांकन करना और मानसिक खुलापन विकसित करना इस समस्या का दीर्घकालिक समाधान है। यह केवल व्यक्तिगत विकास तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि सामाजिक और वैश्विक निर्णय-प्रक्रियाओं को भी अधिक न्यायसंगत बनाएगा। अंततः यह कहा जा सकता है कि :-


“सच को समझना है तो खुद को भूलना होगा,

क्योंकि जो तुझमें है वही तुझसे झूठ बोलता है।”


By Ayush Sharma




Recent Posts

See All
The Moon, the Lake, and The Reflection

By Jacob James Grigware The smaller the body the easier it is for a ripple to reflect chaos.  Imagine a still lake. The beauty and complexity of the sky is near-perfectly reflected in its surface. Whe

 
 
 
Life Is Like Live Theatre

By Jacob James Grigware and you’ve got the lead role. The play you’re currently starring in could be anything. It could be a comedy, a romance, a tragedy, a musical, for Christ's sake. It could be the

 
 
 
Animal Testing

By Ella Kang As animal lovers have been increasing throughout the past, animal testing started to float up to the surface of the spotlight with attention and concern. Hence, numerous problems, such as

 
 
 

Comments

Rated 0 out of 5 stars.
Couldn’t Load Comments
It looks like there was a technical problem. Try reconnecting or refreshing the page.
bottom of page