By Adyasha Pradhan
अंत का आरंभ हूँ –
स्वयं में अति सम्पूर्ण हूँ मैं ,
ध्वस्तू ब्रम्हांड क्षण भर में
कि देवता भी कापे रग-रग में ।
कण-कण में क्रोध विष समाहित शोणित नस रख कर ,
अंगार प्रकटू भर-भर में ।
लाँघे जब कोई क्षेत्र मेरे , मद-धड़ हो जाये कण-कण में ।
संहारी हूं मैं, महाकाली हूं मैं ।।
ताने मोह जंजीर के और कहते लोग बैरागी ,
अज्ञात मेरे रक्त अक्ष से –
करूँ अपार जब स्वयं के नल से
अप्राण संचय हो जाए तल स्थल में ।
अदृष्टत है अंतर्मन के असीमित क्रोध से ,
जो नयन भर मोह लेकर
ब्रह्मांड स्वरूप नारी का धागा अब तक बंधित है ;
क्योंकि अब भी समय आगम है :
By Adyasha Pradhan
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